No Widgets found in the Sidebar

किसी गाँव में एक किसान रहता था जो बहुत ही दयालु और लोगो की सेवा में लगा रहता था कभी किसी पे कोई मुसीबत आ जाये या अन्य किसी प्रकार की सहायता की आवश्यकता होती तो वह सपने सामर्थ्य अनुसार उनकी मदद अवश्य करता | अपने काम काज और लोगो की सेवा में वह इतना व्यस्त रहता था की उसे भगवान् की पूजा पाठ तक का समय नहीं मिल पाता था और बहुत ही काम पूजा पाठ या मंदिर जा पाता था |

एक सुबह किसान अपने खेत की तरफ काम करने के लिए जा रहा था कि उसे एक देव के दर्शन हुए. किसान ने देव को प्रणाम करते हुए उनका अभिनन्दन किया और देव के हाथों में एक लम्बी-चौड़ी पुस्तक देखकर उनसे पूछा- “ है प्रभु, आपके हाथ में यह क्या है?”

देव बोले- “राजन! यह हमारा बहीखाता है, इसमें उन सभी के नाम है जो ईश्वर की पूजा पाठ करते है और नित उनका ध्यान करते हैं |

किसान ने निराशायुक्त भाव से कहा- “कृपया देखिये तो इस किताब में कहीं मेरा नाम भी है या नहीं?”
देव ने किताब का एक-एक पृष्ठ पलटना शुरू किया परन्तु किसान का नाम कहीं भी नजर नहीं आया.

किसान ने देव को चिंतित देखकर कहा- “ हे देव कृपया आप चिंतित ना हों , आपके ढूंढने में कोई कमी नहीं है. वास्तव में ये मेरा दुर्भाग्य है कि मैं भजन-कीर्तन के लिए समय नहीं निकाल पाता, और इसीलिए मेरा नाम यहाँ नहीं है.”

उस दिन किसान के मन में आत्म-ग्लानि-सी उत्पन्न हुई लेकिन इसके बावजूद किसान इसे नजर-अंदाज कर दिया और पुनः परोपकार की भावना लिए दूसरों की सेवा करने में लग गया.

कुछ दिन बाद किसान फिर सुबह अपने खेत्रो की तरफ टहलने के लिए निकला तो उन्हें वही देव महाराज के दर्शन हुए, इस बार भी उनके हाथ में एक पुस्तक थी. इस पुस्तक के रंग और आकार में बहुत भेद था, और यह पहली वाली से काफी छोटी भी थी.

किसान ने फिर उन्हें प्रणाम करते हुए पूछा- “देव ! आज कौन सा बहीखाता आपने हाथों में लिया हुआ है?”

देव ने कहा- “पुत्र! आज के बहीखाते में उन लोगों का नाम लिखा है जो ईश्वर को सबसे अधिक प्रिय हैं !”

किसान ने कहा- “कितने भाग्यशाली होंगे वे लोग ? निश्चित ही वे दिन रात भगवत-भजन में लीन रहते होंगे !! क्या इस पुस्तक में कोई हमारे नगर का भी नागरिक है ? ”

देव ने बहीखाता खोला , और ये क्या , पुस्तक के पहले पन्ने पर पहला नाम किसान का ही था।

किसान ने आश्चर्यचकित होकर पूछा- “महाराज, मेरा नाम इसमें कैसे लिखा हुआ है, मैं तो मंदिर भी कभी-कभार ही जाता हूँ ?

देव ने कहा- “पुत्र ! इसमें आश्चर्य की क्या बात है? जो लोग निष्काम होकर संसार की सेवा करते हैं, जो लोग संसार के उपकार में अपना जीवन अर्पण करते हैं. जो लोग मुक्ति का लोभ भी त्यागकर प्रभु के निर्बल संतानो की सेवा-सहायता में अपना योगदान देते हैं उन त्यागी महापुरुषों का भजन स्वयं ईश्वर करता है. ऐ पुत्र ! तू मत पछता कि तू पूजा-पाठ नहीं करता, लोगों की सेवा कर तू असल में भगवान की ही पूजा करता है. परोपकार और निःस्वार्थ लोकसेवा किसी भी उपासना से बढ़कर हैं.

देव ने वेदों का उदाहरण देते हुए कहा- “कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छनं समाः एवान्त्वाप नान्यतोअस्ति व कर्म लिप्यते नरे..”
अर्थात ‘कर्म करते हुए सौ वर्ष जीने की ईच्छा करो तो कर्मबंधन में लिप्त हो जाओगे.’ पुत्र! भगवान दीनदयालु हैं. उन्हें खुशामद नहीं बल्कि आचरण भाता है.. सच्ची भक्ति तो यही है कि परोपकार करो. दीन-दुखियों का हित-साधन करो. अनाथ, विधवा, किसान व निर्धन आज अत्याचारियों से सताए जाते हैं इनकी यथाशक्ति सहायता और सेवा करो और यही परम भक्ति है..”